यादों के समंदर में,
एक तिनका उड़के गिर पड़ा !
लहरों के संग डूबते लड़ते,
किनारे पे जा कही अड़ा !!
था खड़ा वह सोच रहा बस
किस ठौर मुझे अब जाना है !
या युही बस डूबते लड़ते
समंदर पार हो जाना है !!
थी अभिलाषा उड़ने की उसको
पर मन अब भी विचलित था !
जाऊ कहाँ मैं क्या करू बस,
सोच यही वह चिंतित था !!
थी नहीं उसे कुछ सूझ बुझ,
पर लड़ना उसका निश्चित था !
किया था जो प्रण उसने भी,
पाना उसे सुनिश्चित था !!
दृढ इरादे, हिम्मत भर खुद में
चिर समंदर
की लहरों को !
जा लड़ा वह प्रेम प्रयाग से,
जहाँ जीत उसे सुनिश्चित था !!
पूरी हुई अभिलाषा उसकी,
और मन उसका उन्मुक्त हुआ !
लड़ते लड़ते जीत मिली पर,
डूब सागर में वह विलुप्त हुआ !!
अमोद ओझा (रागी)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें